शहरी कहीं के!
After long time returned from office when Sun was just setting. Looking at the view from behind a tall building went into old memory lane and come up with few lines.
आज फिर से डूबते सूरज को देखने की ललक जागी थी,
उड़ते परिंदों को नीड़ का रुख करते देखने की आस जागी थी।
यूँ तो शहर की ऊँची इमारतों ने सूरज का पर्दा कर रखा था,
पर छलकती लालिमा से मन तृप्त करना कहा मना था।
बिल्डिंग के पीछे क्रिकेट खेलते बच्चों ने बचपन की यादें ताजा कर दी थीं,
शायद इस समय हमारे अंतिम मैच की दूसरी पारी शुरू हुआ करती थी।
परिंदों का झुण्ड ऊपर गुजरता देख उन्हें हाथ दिखाने की याद आयी थी,
उनके निलयन की मधुर-कर्कश ध्वनि सुनने की उत्कंठा फिर से जागी थी।
शायद मैं बचपन और अपने छोटे कस्बे को बहुत मिस करता हूँ,
शहरी कहीं के- आज कोई ऐसा ना बोल दे, बहुत डरता हूँ।
(26/08/2014, 6:13 PM)
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